मातु पितु शुर प्रभु के बानो ।
बिनहिं विचार करिअ शुअ जाती ।।
तुन सब ज्ञाति परम हितकारी ।
अजा सिर पर जाय तुम्हाशै ।
जिनका स्वभाव परोपकार करने का होता हैउन्हें चम्हे कितना भी कष्ट होवे परोपकार जिये बिना रह नहीं सकते । सहज स्वभाव को दुस्लाज बताया है । साथु पुरुष प्राय दूसरे कं सन्ताप हैं ही त्तन्तप्त हुआ कस्ते है 1 दूसरो के दुख से दुखी होना यही उन अखिलात्पा परम पुरुष परमात्मा की पस्साराघन हैं
त्तप्यल्ले लोक तापेज साधव: प्रावशीजजा: ।
परआरग्धलं तजि १दुफषउरारित्रत्वात्मन।।
अठारह पुराणी का सार इन दो बातों में आ गया है । दूसरे का हित करने के समान कोई दूसरा पुण्य नहीं हैं ओर दूसरो को दुख देने के समान कोई पाप नहीं है ।-
अष्टादश पुदापोषु व्यासस्य वचनं हैंयानू।
पसोपकार: पुषयाय पापाय पर पीड़जम्।।
परहित सरिस धर्जजहीं आई।
पर पीडा सटा नहीं अधझाहँ । ।
परोपकार सेना भी सब क्रोइं श्री हाथ की बात नहीं है । जिन्ह रान्ती को भगवान ने जिस निमित्त इस धरा पर भेजा है यहीं त्तन्त परोपकार कर सकते हैं । क्योंकि उनका आना ही कंवल परोपकार कं लिए होता हैं ।
सन्त विष्य सरिता गिरि धरनी ।
परहित हैतुत्तबन्ह के करली । ।
पारस मे अरु सन्त ने त्तन्त अघिक का आजा
वह लोहा से सोजा करे यह कौ आप समाज ।।
संत उदय संतत सुखकारी ।
विश्व सुखद जिमि हन्दूतआशे । ।
सन्तो का अन्युदय सदा ही सुख कर होता है । जैसे चन्द्रमा और सूर्य का उदय विश्व भर के लिए सुखदायक है । महाराजश्री ने यह अनुष्ठान तैलधारावत अखण्ड 72 घन्टे का रखा जिससे एकमृ कुण्डस्ताक श्रोबिष्णु महायज्ञश्रीराम नाम संकोर्तनखंगीतमय श्रीरामचरितमानसश्रीमदभागवतादि पुराणश्वीमद भगपगीतादुगों सपाशतीश्रीमात्भीवि' प्रथम त्तगं भूलनामायपादि का अखण्ड परि; फाल्युन चुदी चौथ शनिवार बि. सं. 2034 से अष्टमी बुधवार तक चला 1 जिसमें प्रात्तद्रकाल गांव की प्रदक्षिणा राम नाम संकीर्तन करते हुएयझीय गक्तिजलअक्षतादि वस्तुओं से गांव का माजंनादि जिया गया । यह अनुष्ठान सानन्द सम्पन्न हुआ । तब से ग्राम में सब प्रकार से सुख शान्ति एवं सम्पत्ति की वृद्धि हो रही है । यज्ञ भगवान की कूपा से इस भौतिक संसार है ग्रामवासियों की सकामनिष्काम सभी प्रकार की इच्छाएँ पूर्ण हो रही है । इस यज्ञ महोत्सव से लोगों को अति लाभ एबं समृद्धि प्राप्त हुई कि श्रीमुरुदेघ से पुन यज्ञ महोत्सव कराने दो लिए प्रार्थना करने लगे । महाराजश्री ने इनकी प्रार्थना स्वीकार करकं पुत उसी प्रज्ञाब से द्वितीय श्रीविष्णु महायज्ञ का आयोजन ग्राम धौला ने फाल्युन बुदी द्वितीया दिसं. 2048 में हुआ ।
श्रीगायबी पुरश्चरण एवं नव कुगडात्मक महायज्ञ प्रिवेणीधाम में-
गायत्री को वेदमाता कहा है । यह सभी वेदों कौ जननी है । ब्रह्माजी ने तीनो वेदों में तो साररूप है एक-एक पाद निकाल कर इस त्रिपादी गायत्री क्रो बनाया है । द्विजातियों के लिए इससे बढ़कर दूसरा मंत्र नहीं हैं । इसीसे इसको द्विज बनाने बाली दूसरो माता कहा है । जिनके दो जन्म हो उन्हें द्विज कहते हैं । प्रथम जन्म तो माता कं उदर से बाहर होने को माना गया है और दूसरा जन्म गायत्री मंत्र की दीक्षा को कहा है । जन्म से मनुष्य शूद्र संज्ञा वाले हुआ करते हैं । किन्तु अपने अपने गिन्न-गिन्न संस्कल्यों दो कारण उनमे ब्राह्मणक्षत्रिय और वैश्य बन जात्तेहैं । कहा भी है यथा…जज्मजाजावते शूद्र: संस्कारात् द्विज उच्यते ।
गायत्री द्विजों की माता कं समान रक्षा करती हैं । जो इसका गायन करता हैजा करता हैउसकी यह नाता दो समान सभी प्रकार कं दुखों से जाया करली हेइसीस्लै इसका नाम गायवी हैं । जायन्तं घावते यस्मात् आयवो रुवं तत: स्मृता । गायकी सभी ऋद्धिट्वेसिद्धिर्था को तथा परम पद को प्राप्त कराने वाली और समस्त मंत्रों को सआझी हैं । वेदों में मुख्यतया गायत्री सांसीयस्टट्यमझतीपपीकत्रिष्ट्रप और जगती ये रात छन्द प्रधान माने गये है । इनके अतिरिक्त अति जगत्तीएस्कॉरौ , अष्टात्यष्टीघृत्तिद्धातिवृति, कृत्तिप्रकृद्विआकूतिबिकृतिसंस्कूति अतिकांलेउत्दाले आदि और भी हैं । जिन्तु रात छन्द प्रधान हैं । उनमें गायत्री छन्द सबसे श्रेष्ट है [ भगवान् श्रीकृष्ण ने भी इसे अपनी बिभूति माना हैं- णावत्रीष्ठन्दसाअहभू । पता)
बैरो तो तीन पद चौबीस अक्षरों वाली वेदों में गायत्री चान बाली छन्द बहुत हैं किन्तु यह सायित्री रूपा गायत्री सभी देयों की जननी है । गायत्री का उपासक सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर विजय प्राप्त वनों सकता है । गायकी समस्त पापों का नाश करने में समर्थ हैं ' गायत्री प्राण स्वरूपा है । द्विजातियों का गायकी ही परम धन हैं ; गायत्री द्वारा ही द्विजों सृष्टि हुई है । ब्रहा प्राप्ति का गायत्री मुख है इसी से गायत्री की ब्रह्मभाव से उपासना करनी चाहिए । इसी बात को बताने वो लिए महाराजश्री ने साध शुक्ला पंचमी रविवार दिसं, 2034 को गायत्री मंत्र एबं श्रीराम मंत्र मुरश्चक्या
जपन्चग्रनुष्ठान प्रारम्भ करवाया । इसमें वेदझ विद्वान ब्राह्मण जो त्रिकाल संध्या करते थे । भूमि पर ही शयन संयम में रहते हुएगायत्री मंत्र का जप और परम श्रीबैष्णव ब्रह्मचारी संत श्रीराम मंत्र का जप करते थे । यह जप दो सो से अघिक ब्राह्मण और सत्त कस्ते थे } चतुथुरश्वस्या जप के दशांश हवन से नव